मैं और मेरा मन .....
Sunday, 8 January 2012
Sunday, 4 December 2011
क्यूँ .. आखिर क्यूँ ?
क्या मेरी बिंदिया में तुमने
सूरज को छिपा रखा था ?
क्या मेरे कंगन से तुमने
चाँद को तराशा था ?
क्या मेरी खुशबु से अपनी
सांवली रात को महकाया था ?
क्या मेरी आँखों से तुमने
अपने घर का दिया जलाया था ?
क्या मेरी पायल की आवाज़ से
तुमने अपने अश्कों को बांधा था ?
पर क्यूँ .. मैं तो वहीँ थी
हरदम तुम्हारे आस-पास
फिर क्यूँ तुमने .. मुझे नहीं पुकारा ?
फिर क्यूँ मेरी यादों से
अपने मकां को सजाया ?
फिर क्यूँ तुमने अपने ख्वाबों को बस
ख्वाब ही रहने दिया ?
क्यूँ .. आखिर क्यूँ ?
गुंजन
9/9/11
Saturday, 22 October 2011
इक नदी हूँ मैं
कभी उथला किनारा
बन जाती हूँ - मैं
तो कभी खुद ही में
गहरी हो जाती हूँ - मैं
कभी बाढ़ बन
उफ़न उफ़न आती हूँ - मैं
तो कभी भंवर बन
खुद ही में समाती हूँ - मैं
इक नदी हूँ - मैं
जिसकी धारा हो तुम
इक नदी हूँ - मैं
जिसका किनारा हो तुम
क्या अपनी बाहों में लोगे मुझे .. ?
क्या अपना - आप दोगे मुझे .. ?
गुंजन
१५/९/११
Tuesday, 4 October 2011
कुछ तो है मेरा .... बस मेरा
अपनी धुन
अपना साज़
अपना अंदाज़
यही ज़िन्दगी है मेरी
तू नहीं तो तेरी
बेरुखी ही सही
कोई तो है - मेरी
..... बस मेरी
गुन्जन
३०/९/११
Friday, 30 September 2011
ये प्यार .......
प्यार कैसा होता है
क्या तुम ये भी नहीं जानते ....?
आँख छलक जाये
पर जुबान पर न आये
कुछ 'ऐसा' होता है - ये प्यार
किसी को सपनों में पहली बार
'छूने' जैसा होता है - ये प्यार
जो बात बात पर कहे - तुम पागल हो
कुछ उस 'पागल' के जैसा होता है - ये प्यार
सिंदूर - जो सूरज की लाली से
चुरा कर रखा था उसने .... उसके लिए
कुछ उस 'चोर' के जैसा होता है - ये प्यार
जो एक अतीत के ख्वाब के सहारे
अपना पूरा जीवन गुज़ार दे
कुछ 'उसके' जैसा होता है - ये प्यार...
गुंजन
१७/९/११
Sunday, 18 September 2011
किसी और ही रंग में ढल जाने के लिए .......
जाने किन हाथों से लिखी हैं
किस्मत हमारी
तुम अलग ..... मैं अलग
जी रहे हैं दो किनारे से
बेतरतीब, बिखरे हुए
जाने किसकी उँगलियों पर
कठपुतली बन
नाचते हुए
_______
ढल जाना चाहती हूँ
तुम्हारे आकार में
घुल जाना चाहती हूँ
तुम्हारे प्रकार में
नदी का छिछला किनारा हूँ
कहीं बह ना जाऊँ
कागज़ पर बहता हुआ रंग हूँ
कहीं बदरंग ना हो जाऊँ.......
समेट लो मुझे अपनी बाँहों में
ज़ब्त कर लो मुझे अपनी साँसों में
कहीं न जाने देने के लिए
किसी और ही रंग में
ढल जाने के लिए ....
गुंजन
१०/९/११
Monday, 12 September 2011
एक खुबसूरत पर...... उदास-सी शाम
शाम का धुन्दल्का रसोई से निकलते धुऐं में कुछ और गहराने लगा था । सड़क पर खेलते बच्चे अपनी माओं के पुकारने पर बेमन-से घरों को वापस जाने लगे थे । रसोई की खिड़की पर खड़ी लड़की की आंखें....घडी के काँटों सी किसी को तेज़ी से तलाशने लगीं ।
तभी माँ ने आवाज़ दी - टमाटर घिस दिया क्या ? लड़की ने घबरा के कहा - हाँ माँ बस हो ही गया टमाटर के साथ - साथ उसने अपना हाथ भी घिस लिया था.....नज़र खिड़की पर जो टिकी थी । माँ से नज़र बचा के.....सड़क से गुजरने वाले हर राहगीर को वो उचक कर देखती । कोने में खड़ी पान की गुमटी पर आने वाले हर शख्स में....वो 'उसको' खोजती ।
माँ ने फिर आवाज़ लगायी - सब्जी छौंक दी क्या ? लड़की ने फिर कहा- हाँ माँ । कसे हुए टमाटर को गर्म तेल की कढ़ाई में डालते हुए....उसने अपनी कुछ खून की बूंदें भी उसमें मिला दी थीं । हाथ कुछ ज्यादा ही घिस गया था । पट-पट की आवाज़ के साथ टमाटर कढ़ाई में भूनने लगा और साथ-ही-साथ उसका खून भी टमाटर के मसाले में एक-रस होने लगा । पर लड़की का सारा ध्यान कोने में सजी उस पान की गुमटी पर ही था । कुरते-पज़ामे में गुज़रते हर शख्स में वो 'उसको' खोजती ।
अचानक पान की उस छोटी सी गुमटी पर उसे इक सफ़ेद सा साया नज़र आया.....आह! लड़की के अंदर से इक आवाज़ आई.... और आंखें ख़ुशी के कारण कुछ और भर-सी आयीं । सफ़ेद कुरते-पज़ामे ने दुकानदार से इक cigratte मांगी....और माचिस भी....सुलगा के अपने होठों से लगा ली । सफ़ेद कुरते-पज़ामे में सजा वो देव-सरीखा मानुष...अचानक ही....उस cigratte के तम्बाकू के साथ-साथ...उसकी आत्मा को भी जलाने लगा ।
ऊँगली से टपकने वाले खून के साथ-साथ....लड़की की आँखों से टपकने वाला दर्द भी उस टमाटर के मसाले में घुलने लगे । तभी माँ ने फिर आवाज़ दी -सब्जी बन गयी क्या ? आंसू पोंछती लड़की ने धीमे से कहा -हाँ माँ । बस बन ही गयी ।
ऊँगली का दर्द अब बेमानी हो चला था.....सीने में उठते उस सोंधे - सोंधे से, बेतरतीब दर्द के आगे ।
उसने अपने आप से पूछा - क्यूँ ? आखिर क्यूँ होता है ...प्यार ऐसा ?
गुंजन
20/4/2011
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